
दहेज: परंपरा या अभिशाप
क्या हम सच में चाँद पर पहुँच गए हैं या अब भी पुरानी सोच में जकड़े हैं?।
By – अर्पिता माथुर
“सोचिए, जिस लड़की ने तीन साल पहले अपने सपनों की शादी की थी, वही दहेज के बोझ से दबकर अपनी जान दे बैठी”
राजस्थान के जयपुर में हाल ही में दो विवाहित महिलाओं की मौत की खबर आई। वैशाली नगर में तीन साल पहले लव मैरिज करने वाली महिला ने दहेज प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली. वहीँ दूसरी ओर श्याम नगर में एक और विवाहिता की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई जहाँ पीहर पक्ष ने हत्या का आरोप लगाया। ये घटनाएँ चौंकाती हैं और सोचने पर मजबूर करती हैं की क्या हम सच में चाँद पर पहुँच गए हैं या अब भी पुरानी सोच में जकड़े हैं?। और भी कई ऐसी घटनाओ ने समाज को एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है की हम चाहे चाँद तक पहुँच जाए लेकिन समाज की कुछ रीति – रिवाजों का बोझ जीवन भर सहना पड़ेगा। वैसे रीति -रिवाजों के विरोध में नहीं हूँ मैं लेकिन कुछ रीति रिवाज़ों का अपना ऐतिहासिक महत्त्व रहा है बस समाज ने बिना ज्ञान के अपनी मानसिकता के बल पर अन्य प्रकार से उन्हें ग्रहण किया है और अब आने वाली पीढ़ी पर थोप रहे हैं।
न केवल भारत में बल्कि यूरोप, अफ्रीका और दुनिया के अन्य भागों में भी दहेज प्रथा का लम्बा इतिहास है। भारत में इसके और भी कई नाम है जैसे हुँडा या वर-दक्षिणा। इतिहास में इसे एक परम्परा के रूप में देखा जाता था जिसका ऐतिहासिक सन्दर्भ कई लेखों और चित्रों में भी मिलता है। जिसे यहाँ प्रदर्शित करना एक नयी बहस शुरू कर देगा। क्यूंकि मेरा और मेरे जैसे कितने पत्रकारों का यही मकसद रहने वाला है की इस प्रथा को सही ढंग से प्रस्तुत किया जाये न की जंग से प्रस्तुत किया जाए.. खैर.. भारत में दहेज, भले ही वर्ष 1961 से दहेज निषेध अधिनियम के तहत अवैध घोषित है, फिर भी इसे आज भी एक सामाजिक प्रथा के रूप में देखा जाता है। वधू यानि लड़की के परिवार द्वारा नक़द या वस्तुओं के रूप में यह वर यानि लड़के के परिवार को दिया जाता है। कई परिवार इसे विवाह का जरुरी हिस्सा मानते हैं और अक्सर इसे “उपहार” का नाम देकर रूप में ढाब दिया जाता है। समाज में अभी भी ये मानसिकता नजर आती है जहाँ उस लड़की की अहमियत उसके जीवन की उपलब्धियों से नहीं, उसकी शिक्षा से नहीं , उसके संस्कारों से नहीं , बल्कि वह कितना दहेज लेकर आई, इससे तय की जाती है। और इसी दबाव के कारण परिवार दहेज की मांगों को पूरा करने के लिये मज़बूर हो जाते हैं, और यही मजबूरी बन जाती है बेटियों की ज़िन्दगी का कलंक उत्पीड़न, हिंसा और मौत के रूप में। कुछ बेटियां संस्कारों और माता पिता के सम्मान को बचाने के बोझ तले पूरी ज़िन्दगी गुजार देती है.
आंकड़ों की बात की जाए तो साल 2017 से 2022 के बीच, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में हर साल औसतन 7,000 दहेज से संबंधित हत्याएँ दर्ज हुईं। वैसे में ये कहूँगी की NCRB के आँकड़ें अपवादित भी हो सकते है क्योंकि दहेज से होने वाली अनेक मौतें रिपोर्ट ही नहीं की जातीं, जो इस समस्या की गंभीरता और हम अपने अधिकारों के प्रति कितने जागरूक है उसकी तरफ एक इशारा है।वहीँ दहेज के लिए तंग करने पर कानून सख्त सज़ा देता है जैसे धारा 498-ए: अगर पति या उसके घरवाले दहेज की मांग करके पत्नी को परेशान करें, तो उन्हें 3 साल तक जेल और जुर्माना हो सकता है।
धारा 406: अगर पत्नी का गहना या उसका सामान वापस नहीं करते, तो 3 साल तक जेल, जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। धारा 304-बी: अगर शादी के 7 साल के अंदर दहेज की वजह से महिला की संदिग्ध मौत हो जाए, तो 7 साल से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है। हालांकी दहेज का विवाह के साथ अटूट संबंध है लेकिन दहेज निषेध अधिनियम, 1961 का अनुच्छेद 3 निर्दिष्ट करता है कि दहेज देने या लेने का दंड उन उपहारों पर लागू नहीं होता है जो दूल्हा या दुल्हन को शादी के समय दिए जाते हैं जब उनकी कोई मांग नहीं की जाती है।
गाँव हो या शहर, अमीर हो या गरीब – दहेज प्रथा की जड़ें बहुत गहरी हैं जिसका दूसरा छोर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा। जहाँ एक और महिलाओं को अब भी यानि मॉडर्न समाज में दहेज के लिये उत्पीड़न, मारपीट और आत्महत्या जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है, जबकि जाँच प्रक्रियाएँ इतनी लंबी होती हैं की दोषियों को सजा मिलना और बेक़सूर को न्याय मिलना ऊँट के मुँह में जीरा मिलने समान है. सबसे बड़ी समस्या तो सोच की ही है. बेटी को आज भी ‘पराया धन’ समझा जाता है। वहीँ दिखावा और समाज में “स्टेटस मेन्टेन ” करने की होड़ मची है । अपराधियों में कानून का डर ही नहीं है क्यूंकि कई केस दबा दिए जाते हैं या रिपोर्ट नहीं होते। अपराधियों के हौंसले और बुलंद हो जाते है। कुल मिलाकर समस्या समाज की मानसिकता में है। दोनों पक्षों को अपना अपना सामाजिक स्टेटस बढ़ाना है चाहे आतंरिक स्थिति हिचकोले खा रही हो। उनकी इसी सोच का भुगतान उनकी बेटी और बहु ही नहीं उससे सम्बंधित हर व्यक्ति को करना पड़ता है। एक जीवन के खोने से केवल वो व्यक्ति नहीं जाता उसके साथ चली जाती कई यादें , टूट कर बिखर जाते है कई सपने, उनके माता पिता की उम्मीदें और उनकी भावी पीढ़ी का भविष्य।
सामाजिक तौर पर समाज को बदलना होगा। अपनी चुप्पी को तोड़ना होगा और आवाज़ उठानी होगी। अगर आपके आस पास ऐसी कोई घटना आप महसूस करते है तो नजदीकी पुलिस स्टेशन में शिकायत अवश्य करे और एक नहीं कई ज़िन्दगियों को आप बचा सकते है. परिवार मिलकर “नो डाउरी” शादियाँ अभियान चलाएँ. वहीँ न्यायिक तौर पर ऐसे फैसले तेजी से हों और कठोर हो ताकि समाज में डर पैदा हो। मानसिक तौर पर हमे सोच में बदलाव लाना होगा। बेटी को बोझ नहीं, बराबरी का अधिकार दें। दहेज़ के रूप उन्हें शिक्षा और आत्मनिर्भरता सौंपे। बेटियों को मजबूत बनाएं।“। भले ही आज हम टेक्नोलॉजी में आगे हैं,चाँद तक पहुँच रहे है , लेकिन अगर दहेज की वजह से बेटियाँ जलती रहें तो ऐसे विकास और प्रगति का क्या मतलब ? कन्या दान पुण्य है, लेकिन कन्या की जान लेना सबसे बड़ा पाप।समाज को मिलकर सोचना होगा –”क्या हम अगली पीढ़ी को भी यही दर्द सौंपना चाहते हैं?”
-अर्पिता माथुर ( पत्रकार )